Volume: 48 2022

  • Title : आवरण पृष्ठ
    Author(s) : संपादिका : प्रो. जाहिदा जबीन
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  • Title : सम्पादकीय
    Author(s) : संपादिका : प्रो. ज़ाहिदा जबीन
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  • Title : विषय सूची
    Author(s) : संपादिका : प्रो. ज़ाहिदा जबीन
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  • Title : साधारणीकरण
    Author(s) : - प्रो. विनोद तनेजा
    KeyWords : भारतीय काव्यशास्त्र, साधारणीकरण, कश्मीरी आचार्य, मत
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    साधारणीकरण सिद्धांत काव्य की एक बुनियादी समस्या के समाधान का एक गम्भीर प्रयास है । समस्या यह है कि काव्य में वैयक्तिक अनुभव की अभिव्यक्ति होती है मगर वह देशकाल की सीमाओं का अतिक्रमण कर सार्वभौम बनने में भी सक्षम होता है । सवाल यह है कि काव्यानुभव में वैयक्तिकता या वैशिष्ट्य का अतिक्रमण करने की यह क्षमता आ कैसे जाती है? भारतीय समीक्षा ने दसवीं शती में ही साधारणीकरण सिद्धांत द्वारा इस समस्या का समाधान दिया था । आज मनोवैज्ञानिक आधारों पर भी इसी बात के समाधान का प्रयास किया जा रहा है. पौर्वात्य (भारतीय) व पाश्चात्य दोनों ही क्षेत्रों के मनीषी चिंतक यह तो स्वीकार करते हैं कि काव्य कवि-व्यक्ति के शक्तिशाली मनोवेगों का सहज प्रकटीकरण है जो कविता के रूप में प्रकट होता है और इसके लिए सम्प्रेषण आवश्यक है तभी वो मनोवेग व्यष्टि के न रह कर समष्टि के बन सकेंगे । यह सम्प्रेषण भावानुकूल सहज भाषा से ही संभव है । इस प्रक्रिया में व्यष्टि का समष्टि में आना ही साधारणीकरण है । कवि की अनुभूति सर्वसाधारण के साथ जुड़कर सामाजिक भावना का रूप धारण करती है । अंततः यह स्पष्ट हो जाता है कि साधारणीकरण-कवि की अनुभूति का यह साधारणीकरण एक ऐसी मिश्रित मानसिक प्रक्रिया है जिसमें अनुभूति की गहराई, कल्पना की वास्तविकता, अभिव्यंजना की निपुणता और लोककल्याण की कामना निहित होती है ।

  • Title : कश्मीर की मीरा : ललद्यद
    Author(s) : प्रो. रसाल सिं एवं आर. आशा
    KeyWords : भक्ति आन्दोलन, कश्मीरी साहित्य, शैव दर्शन, भगवद्भक्ति, आत्मनिवेदन, एकात्मता, रहस्यवाद, धर्म, अध्यात्म, योग, साधना, आडंबरवादिता, रूढ़िवादिता, पाखण्ड, स्त्री चेतना, वर्ग-भेद, नवजागरण
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    ललद्यद व ललारिफ़ा कश्मीर की आदि कवयित्री, एक शैव भक्त एवं साध्वी के रूप में जानी जाती हैं। उन्होंने कश्मीरी शैव दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हुए अपने वाखों के माध्यम से कश्मीरी जन मानस को सदाचार, आत्मशुद्धि और मानव बंधुत्व का उपदेश दिया । उस परम शिव तक पहुँचने के लिए तथा उस वास्तविक ज्ञान की तलाश हेतु उन्होंने योग और कठोर साधना का मार्ग अपनाया। सिर्फ यही नहीं समाज में व्याप्त धार्मिक आडंबर, रूढ़ियों आदि के प्रति विरोध का स्वर रचा । स्त्री चेतना का स्वर भी उनमें प्रमुख रूप से देखने मिलता है। कश्मीर में ललद्यद को वही स्थान प्राप्त है, जो हिंदी साहित्य जगत में संत कवयित्री मीराबाई को । दोनों दो अलग संस्कृति, अलग परंपरा से सम्बद्ध होने के बावजूद अध्यात्म रूपी एक सूक्ष्म कड़ी से जुडी हुई हैं । मीरा और ललद्यद ने दुनियावी माया मोह के बंधनों को त्याग कर स्वयं को पूर्ण रूप से उस परम शक्ति को समर्पित कर दिया । दोनों में विषमताओं की अपेक्षा समानताएं अधिक हैं । इसीलिए ललद्यद को कश्मीर की मीरा कहने में कोई अत्युक्ति नहीं न होगी । अतः भक्ति के अखिल भारतीय स्वरूप को पहचानने के लिए तथा कश्मीर की साझी विरासत को पुष्ट करने हेतु ललद्यद का अध्ययन अत्यावश्यक है ।

  • Title : निडर और जुझारु पत्रकार ‘प्रेमचंद’
    Author(s) : प्रो. इफ्फ़त असग़र व अहमद रजा
    KeyWords : ब्रिटिश सरकार, हंस, जागरण, माधुरी, पत्र–पत्रिकाएं, स्वराज्य, शांति स्थापना, शोषणअत्याचा इत्यादि।
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    प्रेमचंद के जीवन का लक्ष्य भारतीय जनता का उद्धार करना था। प्रेमचंद के विचार में भारत की आंतरिक और बाह्य समस्याओं को अंग्रेज़ सरकार की गुलामी में रहकर हल नहीं किया जा सकता था, इसलिए उन्होंने ब्रिटिश शासन का अंत आवश्यक समझा । ब्रिटिश विरोधी उनके जितने भी लेख (विशेषकर ‘हंस’ और ‘जागरण’ में) प्रकाशित होते थे, उनको पढ़कर आसानी से समझा जा सकता है कि यह कलम का सिपाही किस तरह निडर और बेबाक़ होकर अपनी कलम चलाया करता था। हालांकि ये युग पराधीनता का युग था। पत्रकारों पर कड़ी से कड़ी नज़र रखी जाती थी। बार-बार जुर्मान लगाए जाते थे, सजाएं दी जाती थी। अगर चार पैसे कमाकर पेट पालने का मसला होता तो प्रेमचंद कोई और व्यवसाय खोल कर पेट पाल सकते थे या अगर ब्रिटिश सरकार का खौफ होता तो ‘सोजे वतन’ की ज़मानत के बाद दुबारा ब्रिटिश विरोधी लेख या रचनाएं लिखना छोड़ सकते थे, लेकिन देश की पीड़ित जनता को देखकर उनका हृदय तड़प उठता था।

  • Title : स्त्री विमर्श : वाद विवाद इतिहास
    Author(s) : -डॉ. कामाख्या नारायण सिंह
    KeyWords : समाज में स्त्री, माँ, बेटी, प्रेमिका, विवाहिता, नीव
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    स्त्री विमर्श समकालीन साहित्य में विमर्श की धार को पैनी किया है। यह भारतीय समाज की वैज्ञानिक संरचना को भी प्रभावित किया है। परन्तु ज़ब हम आधी आबादी की वर्तमान स्थिति पर विहंगम दृष्टि डालते हैं तो विमर्श के समस्त अवयव एवं मानक ध्वस्त होते दिखते हैं। घर, परिवार एवं समाज की बनावट में नारी को पूजनीय माना गया है। ऐसा कहा गया कि, जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। इन्हें कभी श्रद्धा तो कभी यशोधरा तो कभी सती, सावित्री, सीता से लेकर कैकेयी, द्रौपदी के आधार पर परंपरागत बेड़ियों को तोड़ने एवं समाज के नये मानदण्ड निश्चित करने की सलाह दी जाती रही है। बहुत हद तक विकास एवं परिवर्तन भी अवश्य दिख जाते रहे हैं। “पिता रक्षित कौमारे, भर्ता रक्षित यौवने, रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा, न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति।” यह श्लोक मनुस्मृति में है जिसमें भारतीय स्त्री के जीवन की तीन अवस्थाओं के सुरक्षा और संरक्षण की नियति दर्ज हैं। पौराणिक युग से लागू होता हुआ यह श्लोक आज तक चला आ रहा है जिसका अर्थ है कि कुंवारेपन में पिता स्त्री की रक्षा करता है तो युवावस्था में उसकी रक्षा पति के हवाले रहती है और वृद्धावस्था में सुरक्षा तथा संरक्षण की कमान उसके पुत्र के हाथ में आ जाती है।

  • Title : रवीन्द्र कालिया के कथा साहित्य में मुस्लिम परिवेश
    Author(s) : डॉ. दारा योगानंद
    KeyWords : मुस्लिम समाज, रीति-रिवाज, समता, भाईचारा
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    आज का प्रत्येक कहानीकार अपने परिवेश के प्रति जागरुक रहा है। लेखक रवीन्द्र कालिया भी उन कहानीकारों मे से एक हैं जिन्होंने यथार्थ का सच्चाई के साथ स्वीकार किया है।उनके कथा साहित्य में हिन्दुओं एवं मुसलमानों के जीवन को बहुत बारीकी से दर्शाया गया है। जहाँ एक तरफ़ हिन्दुओं के रीति-रिवाज़, परिवार,जीवनगत परिस्थियों का जिक्र है, वहीं मुस्लिम समाज के प्रति भी उनकी दृष्टि पैनी हैं।

  • Title : धूमिल के काव्य में मानवतावादी स्वर
    Author(s) : डॉ. रज़िया शहेनाज़ शेख अब्दुल्ला
    KeyWords : समाज, मनुष्य, मानवतावाद, समानता
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    धूमिल की कविताओं में सर्वहारा वर्ग के प्रति संवेदना और इस पक्ष के लिए आवाज उठाई गई है। बड़ी ही निर्भयता से शोषण प्रवृत्ति का विरोध किया तथा आम जनता जो किसान, मजदूर, श्रमिक, उपेक्षित जन जिनका शोषण सदियों से होता रहा है, उस वर्ग के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुए उनकी वेदना को वाणी दी है। तथा काव्य के आधार पर जनशक्ति को बढ़ाने की बात करते है। शोषित वर्ग पूँजीवादी तथा राजनेताओं का परदाफाश करते नज़र आते है। हिंसा का विरोध करते हुए अहिंसा का, मानवतावाद का संदेश देते है। धूमिल की कविताओं में जिन मुद्दों को लेकर मानवतावादी स्वर उभरा है, उस विषय में हम यह कह सकते है कि उनकी कविता आम जनता के पक्ष में खड़ी होकर व्यवस्था के अमानवीय चेहरे को प्रस्तुत कर उसे सामने लाना चाहती है। उनकी कविताएँ मानवीय-मूल्यों की गहराई तक पहुँचकर उसे स्थापित करना चाहती है।

  • Title : हिन्दी साहित्य में कबीर
    Author(s) : डॉ. निर्भय सिंह
    KeyWords : कबीर वाणी, भक्ति, लोक-मंगल, समता
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    कबीरदास हिन्दी सहित्य के इतिहास में वर्णित भक्तिकाल के ‘निर्गुण भक्ति शाखा’ के ‘ज्ञानाश्रयी काव्य धारा’ के अन्तर्गत आते हैं, जिसे ‘संत काव्यधारा’ के नाम से भी जाना जाता है। पूरे भक्तिकालीन साधकों में कबीरदास का स्थान अन्यतम है। उनके व्यक्तित्व की प्रखरता, चरित्र की निर्मला, स्वभाव की सहजता एवं साधना की उच्चता की सराहना उनके विरोधियों एवं समर्थकों ने समान रूप से की है। कबीर विश्व सन्त है। धरती और इस पर विद्यमान जीवन की खातिर कबीर का जीवन एक लम्बी सत्त प्रार्थना है, कबीर की दृष्टि कई प्रकार से पूर्ण है। मनुष्य को देखते और उसे अपने पूरे होने का अहसास दिलाते हैं। कबीर यों पूरी मनुष्यता के भी और पूरे अस्तित्व के द्रष्टा और प्रतिष्ठापक हैं। मनुष्यों के प्रति उनके इस प्रकार व्यापक दृष्टिकोण रखने के कारण ही उन्हें मानवतावादी कहा जाता है।

  • Title : हिन्दी साहित्य को प्रवासी साहित्यकारों का योगदान
    Author(s) : डॉ. अमृता सिंह
    KeyWords : प्रवासी साहित्यकार, दो संस्कृतियों की टकराहट, भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति, अप्रवासियों की विडम्बना, संवेदना, हिन्दी साहित्य ।
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    प्रवास की प्रक्रिया में आई निरन्तरता, भूमंडलीकरण, कंप्यूटर-इंटरनेट क्रांति के साथ-साथ विश्वभर में प्रवास कर रहे हिन्दी रचनाकारों का विभिन्न माध्यमों द्वारा साहित्य के प्रति लगाव व जुड़ाव ने हिन्दी साहित्य को बड़े प्रभावशाली ढंग से विश्वभर में पहचान दिलवाई है । विदेश में रहने वाले रचनाकारों ने अपनी रचनाओं द्वारा दो संस्कृतियों की टकराहट, भारतीयता तथा पाश्चात्यता के मध्य झूलते प्रवासियों की मानसिकता, पुनः अपने देश लौट आने की तड़प और ललक, प्रवासी जीवन के अनुभवों आदि का गहनता से वर्णन किया है । प्रवासी साहित्य का अपना एक वैशिष्ट्य है जो इन साहित्यकारों की रचनाओं की संवेदनाओं, परिवेश, जीवन दृष्टि में दृष्टिगत है ।

  • Title : छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य
    Author(s) : डॉ. नसरीन जान
    KeyWords : लोक-साहित्य, संस्कृति, रीति-रिवाज, संस्कार
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    लोक साहित्य उस दर्पण के समान है जिसमें जनता का विराट स्वरूप प्रतिबिम्बित होता है । लोक साहित्य के अध्ययन से किसी भी देश का ज्ञान प्राप्त करने में बहुत सहायता मिलती है । किसी संस्कृति विशेष के उत्थान-पतन, उतार-चढ़ाव का जितना सफल अंकन लोक साहित्य में रहता है, उतना किसी ओर में नहीं । इस मौखिक साहित्य में धर्म, समाज तथा सदाचार सम्बंधी अमूल्य सामग्री भरी पड़ी है । इसके साथ ही स्थानीय इतिहास तथा भूगोल संबंधी बातें भी इससे उपलब्ध होती हैं । भाषा शास्त्री के लिए तो यह साहित्य सागर के समान है, जिसमें गोता लगाने पर उसे अनेक अनमोल रत्न प्राप्त हो सकते हैं । लोक साहित्य मानव की सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति है । यह अधिकांशत: अलिखित ही रहता है और अपनी मौखिक परम्परा द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आगे बढ़ता है । वस्तुत: लोक साहित्य लोक संस्कृति का वास्तविक प्रतिबिम्ब होता है । लोक साहित्य का क्षेत्र बहुत व्यापक है। लोक साहित्य के विद्वानों का मानना है कि जहाँ-जहाँ लोक है, वहीं-वहीं लोक साहित्य भी उपलब्ध होता है । लोक साहित्य के विविध प्रकार है जिन्हें मौटे तोर पर इस प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है- लोकथा, लोकगाथा, लोकगीत, लोकनाट्य, लोक कलाएँ, लोक मुहावरे एवं लोकोक्तियाँ आदि ।

  • Title : कश्मीर के संत कवि शेख नूरुद्धीन के काव्य में लोकमंगल अवधारणा
    Author(s) : डॉ. मुदस्सिर अहमद भट्ट
    KeyWords : लोकमंगल, हिन्दू-मुस्लिम एकता, सदाचार, शांति |
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    कश्मीर पौराणिक महत्त्व और अनंत रोमांस का देश है | यह सही अर्थो में शुद्ध, स्वच्छ और भव्य चित्र प्रस्तुत करता है, जहाँ पृथ्वी एक परी-भूमि और स्वर्ग है | इस मनमोहक सौन्दर्य और लुभावन जलवायु को अनंत आशीर्वाद है | प्रभावशाली परिदृश्य, विशाल झीलों और नदियों, बर्फ से ढकी पहाड़ियों, धन्य प्रकृति के बीच भगवान ने मानवों के कल्याण के लिए समय-समय पर अवतार भेजे है, जो इंसानों को गुमराही के अंधियारों से निकालकर रोशनी के मीनारों और सत्यमार्ग पर लाते है | जहाँ तक कश्मीर घाटी का सम्बंध है, इसे (पिर वअरी, रशि वअरी) के नाम से जाना जाता है, वो इसलिए कि यहाँ बड़े-बड़े साधुओं, संतो, ऋषियों और महात्माओं ने जन्म लिया है | जिनमें सईद बुलबुल शाह, सईद अली हमदानी, हज़रत शेख नुरुद्दीन नुरानी, ललदेद, हब्बा खातून इत्यादि | इन सभी महात्माओं में हज़रत शेख नुरुद्दीन नुरानी का विशेष स्थान है, जिन्हें ‘नुन्दऋषि’ के नाम से जाना जाता है |

  • Title : भारतीय जनमत निर्माण में प्रेमचन्द की पत्रकारिता का योगदान
    Author(s) : अहमद रजा
    KeyWords : पत्रकार प्रेमचंद, गांधी जी, ब्रिटिश सरकार, दमन, डंडा शास्त्र, स्वराज्य आंदोलन, हिंदू-मुस्लिम एकता, नारी उत्थान, ज़माना, माधुरी, हंस, जागरण, ज़मींदार, सांप्रदायिकता, मिथकीय इतिहास इत्यादि।
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    सारांश : ‘‘मैं कभी पत्रकार नहीं रहा लेकिन परिस्थितियों ने मुझे जबरन बनाया और जो कुछ मैंने साहित्य में कमाया था, जोकि बहुत नहीं था, सब पत्रकारिता में गँवा दिया।”1 प्रेमचन्द ने अपने इस कथन में जिन परिस्थितियों की तरफ इशारा किया है वह केवल उनकी अभावों और कर्ज़ के बोझ से दबी हुई जिंदगी ही नहीं थी बल्कि सदियों की गुलामी में पिस रही भारत की दयनीय सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थिति भी थी। देश की इस दयनीय स्थिति के लिए सबसे बड़े ज़िम्मेदार अंग्रेज़ थे। इसके अतिरिक्त देश में पनप रही हिंदू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता और जमींदारों की स्वार्थ भावना ने भी देश को खोखला करने में एक नकारात्मक भूमिका का निर्वहन किया था। प्रेमचंद जिस प्रकार साहित्य के माध्यम से ब्रिटिश भारत की दयनीय स्थिति का चित्रण करके लोकमत को संगठित कर रहे थे उसी प्रकार पत्रकारिता के माध्यम से भी जनमत को संगठित करने की कोशिश कर रहे थे। पत्र-पत्रिकाएं जनमत निर्माण में साहित्य की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होती है। यही कारण है कि ब्रिटिश भारत के प्रायः सभी महान साहित्यकार किसी न किसी पत्रकारिता से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अवश्य जुड़े रहे हैं। जनमत निर्माण की भावना को लेकर ही साहित्यकार प्रेमचंद पत्रकारिता के क्षेत्र में क़दम रखते हैं।

  • Title : ‘अब के बिछुड़े’: नारी सशक्तिकरण का प्रेम पत्र
    Author(s) : -डॉ. सब्ज़ार अहमद बट्टू
    KeyWords : सशक्तिकरण, अंतर्मन, सहनशीलता
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    सारांश: नारी सशक्तिकरण का भाव लिए और नारी उत्पीडन की बात करने वाले न जाने कितने ही उपन्यास दिन–प्रतिदिन प्रकाशित होते रहते हैं । नारी की वेदना को दर्शाने के लिए लेखक कभी पति को खलनायक बनाता है तो कभी समाज के अन्य जीवियों को परंतु अब के बिछुड़े उपन्यास में लेखिका ने महिला सशक्तिकरण के सजीव दृश्य को पाठकों के समक्ष लाने के लिए किसी भी परंपरागत माध्यम को न चुनकर इन सब से परे प्रेम के माध्यम से नारी की मनःस्थिति को उजागर करने का प्रयास किया है । यह उपन्यास न केवल नारी सशक्तिकरण की बात करता है बल्कि इस उपन्यास में प्रेम के कारण मन में उठने वाले मनोहर भावों के दृश्य प्रस्तुत करने के साथ-साथ नारी के मन में चल रहे विरोधाभास को भी प्रस्तुत किया है। यह नारी की सबसे बड़ी विडंबना है कि प्रेम जैसे पवित्र तथा सुखमय सम्बन्ध स्थापित करने में भी नारी को संकोच होता है । कारण जो भी हो पर है तो सत्य । इस उपन्यास में नारी-मन के कोमल पक्ष के के दर्शन भो होते हैं और आधुनिक सोच रखने वाली नारी का विरोधी रूप भी देखने को मिलता है ।

  • Title : इक्कीसवीं सदी का हिन्दी सिनेमा और स्त्री दर्पण की झलक
    Author(s) : अमनप्रीत
    KeyWords : हिन्दी सिनेमा, स्त्री, अधिकार, थप्पड़, नीरज, स्त्री की भूमिका, पितृसत्तात्मक मानसिकता ।
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    सारांश : वर्तमान युग में सिनेमा समय-समाज का दर्पण बनकर सामने आया है। सिनेमा का उदय साहित्य से हुआ है। साहित्य के बिना सिनेमा की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। समाज में जो कुछ भी घटित होता है, चाहे वो सामाजिक, राजनैतिक, पारिवारिक, प्रेम-प्रसंग का विषय, स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में अंतराल, माता-पिता और बच्चों की सोच में अंतराल और विस्थापन आदि समस्याओं को बड़े पर्दे पर दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। सिनेमा एक ऐसी कला है, जो दृश्य-श्रव्य के साथ प्रस्तुत होती है। “हमारे यहाँ निरक्षता आज भी है, लेकिन वे सिर्फ कहने भर को साक्षर हैं। उन तक पत्र-पत्रिकाएँ या साहित्य नहीं पहुँच सकता, लेकिन सिनेमा उन तक पहुँचता है और पहुँचता रहेगा। ऐसे समाज में सिनेमा जैसे माध्यम के असर की कल्पना की जानी चाहिए।” समाज में समय के संरचना एवं प्रवृतियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। सिनेमा ने इन परिवर्तनों को पर्दे पर उतारा है। स्त्री समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा है। स्त्री के बिना समाज व देश के विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। सदियों से स्त्री संघर्ष करती आ रही है। समाज में स्त्रियों की स्थिति उनके अधिकारों की स्वीकार्यता, पुरुषवादी मनोवृतियों से उनका टकराव, इनके प्रति स्त्री का प्रतिरोध जैसे मुद्दों को सिनेमा में प्रतिबिम्बित किया है। हिन्दी सिनेमा में स्त्री आरंभ से ही केन्द्र में रही है। फ़िल्म में स्त्री – माँ, पत्नी, बहन, प्रेमिका, देवी, खलनायिका आदि अनेक रूपों में अपनी उपस्थिति दर्जा करवाती आ रही है। हिन्दी सिनेमा के आरंभिक दौर में स्त्रियों को बहुत ही पारम्परिक एवं घरेलू रूप में दिखाया गया है लेकिन निर्देशकों ने साहस करके उन्हें पारम्परिक भूमिका से बाहर निकाल कर उनके व्यक्तित्व के सशक्त पक्ष को दर्शकों के सामने दिखाने का प्रयास किया है। “समाज की भूल”(1934), “देवदास”(1935), “बाल-योगिनी”(1936), “आदमी”(1939), “दुनिया न माने”(1937),“अछूतकन्या”(1936),“दहेज”(1950),“पतिपरमेश्वर”(1958), “हकीकत”(1964), “पूरब और पश्चिम”(1970)“कर्मा”(1986),“आदमी”(1993), जैसी फिल्मों में स्त्री की भूमिका घर-परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती नज़र आती है। बीसवीं सदी में आते-आते स्त्री की स्थिति में सुधार आया और अब नायिका अपनी भूमिकाओं और पटकथा का चुनाव करने लगी। इक्कीसवीं सदी में हिन्दी सिनेमा की विषयवस्तु और भी परिपक्क और प्रौढ़ हुई और स्त्री जीवन से जुड़े विविध आयाम और समस्याओं को हिन्दी सिनेमा ने अपनी विषयवस्तु का आधार बनाया। स्त्री का दायित्व प्रमुख रूप से परिवार के प्रति है, जबकि स्त्री अपनी अस्मिता को पहचान कर विस्तृत भूमि की मांग करती है। स्त्री की पीड़ा और उनके अधिकारों की लड़ाई की साझेदारी में हिन्दी सिनेमा ने साथ दिया है चाहे वह किसी भी स्तर पर किसी भी रूप में हो। आज के समय की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता स्त्री सशक्तिकरण की है। हिन्दी सिनेमा में स्त्री केंद्रित फिल्मों का प्रभाव व्यापक रूप से समाज पर पड़ा है। हिन्दी सिनेमा ने स्त्री सशक्तिकरण के रूप को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुआ है। स्त्री केंद्रित फिल्मों के माध्यम से समाज की अन्य स्त्रियों पर प्रभाव डालकर उन्हें एक नई पहचान दी है। सिनेमा में स्त्री का स्पष्ट विकास तथा विभिन्न पक्षों पर व्यापक और बेहतरीन बदलाव देखने को मिलते है। इस लेख को हिन्दी सिनेमा की इक्कीसवीं सदी में प्रदर्शित हुई उन फिल्मों को आधार बनाया गया हैं जिन्होनें स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका दी हैं और समाज की अन्य स्त्रियों के जीवन में नवीन चेतना का सृजन किया हैं उन्हें नई राह दिखाई हैं और समाज की पुरुषवादी मानसिकता की मान्यताओं को तोड़कर नई भावभूमि का निर्माण किया हैं।

  • Title : काला पादरी उपन्यास की विशिष्टता
    Author(s) : जीत कौर
    KeyWords : आदिवासी, सरगुजा, विश्रामगृह, बैंक प्रशासन, राजनीति, बपतिस्मा, धर्मांतरण, बैगा, अकाल, भूख, गरीबी, अंधविश्वास आदि।
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    सार : समाज में बहुत से मानव समुदाय रहते हैं, जिनमें से कुछ शहरी सभ्यता में रहकर आधुनिक तौर तरीकों से जीवन यापन कर रहे हैं और कुछ समुदाय ऐसे हैं जो आज भी पहाड़ों पर शरण लेकर नारकीय जीवन जी रहे हैं, जिन्हें आदिवासी कहा जाता है। आदिवासी शब्द दो शब्दों ‘आदि’ और ‘वासी’ के योग से बना है। आदि का अर्थ है- ‘मूल’ अथवा ‘पहला’ तथा वासी का अर्थ है- रहने वाला अर्थात ‘निवासी’। इस प्रकार आदिवासी शब्द से तात्पर्य है किसी देश या प्रांत के वे निवासी जो बहुत पहले से वहाँ रहते आए हों और वहाँ के मूल निवासी हों, आदिवासी कहलाते हैं। ये आदिवासी बहुत पहले से निर्जन एवं दूरस्थ क्षेत्रों में निवास कर रहे हैं और विकास के साधनों से दूर रहने के कारण इनका जीवन विकसित नहीं हो पाया है, जिसके कारण यह समुदाय जटिलताओं एवं अभावों में जकड़ता गया। साहित्य की विभिन्न विधाओं के माध्यम से लेखकों ने आदिवासी समाज के जीवन, रहन-सहन, समाज एवं संस्कृति को उजागर करने का प्रयास किया है।

  • Title : कश्मीर में हिंदी का विकास एवं वर्तमान स्थिति
    Author(s) : हुमैरा यूसुफ़
    KeyWords : कश्मीर, हिंदी, दिशा एवं दशा, अहिन्दी क्षेत्र
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    कश्मीर में हिंदी का विकास एवं वर्तमान स्थिति आलेख में कश्मीर में हिन्दी के उद्भव एवं विकास पर चर्चा की जाएगी। कश्मीर में हिन्दी की वर्तमान स्थिति क्या है और भूतकाल में इसकी स्थिति क्या रही है,इसका क्रमबद्ध रूप से अध्ययन किया जाएगा और यह स्पष्ट करने का भी प्रयास किया जाएगा कि कश्मीर जैसे अहिन्दी क्षेत्र में हिन्दी के पठन-पाठन की क्या दशा है।